मीडिया में सछ्चाई से अनदेखी का बढ़ता रुझान
जांच एजेंसियों और मीडयाके तारिक कर पर न्याय पसंद लोगों द्वारा आपत्तियाँ कोई नहीं बात नहीं है. बारहाअपने कर्तव्यों को पूरा करने में जानिब दाराना व्यवहार करने परमीडयाको मुंह की खानी पड़ी है. राजनीति तबका के एक वर्ग के साथ बुद्धिमान ने भी इस तरह की तुच्छ हरकत से बाज आने की मीडिया को नसीहत की है, मगर सनसनी फीलाने और जनता का ध्यान केवल अपनी ओर आकर्षित करानेकी होड़ में वह अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं. तिल को तार बनाकर पेश करने में माहिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े लोगों में यह रुझान खतरनाक रूप इख्तेयार करता जा रहा है कि वह सच्चाई का सामना नहीं करते बल्कि जब कभी कोई महत्वपूर्ण घटना उनकी नज़रों के सामने होती है तो बड़ी चालाकी से अपनी आँख मूनद लीते है - क्योंकि वह यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि ईमानदारी पुर उन्हें अपने मालिकों से पुरस्कार नहींमलने वाला है तो फिर क्यों न वह काम किया जाए जiस पर उसकी वाह वाही भी हो और इम्नाम भी मिले, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि उसकी पेशकश और समाचार सच्चाई पर न जाने कितने लोगों की निगाहें केंद्रित होती हैं और यह करें बैठे हैं कि शायद उनकी रिपोर्ट पर्याप्त परिणाम बुर आगमन हो. मज़लूम और परेशान हाल लोगों का कुछ भला हो जाए और ऐसा चमतकारहो कि राष्ट्र, समाज और देश की तकदीर बदल जाए. कभी ऐसा होता भी है कि वर्षों से दरबदर की ठोकरें खाते आ रहे इंसान को मीडिया के माध्यम से मज़बो्t सहारा मिला है और उनकी राह में आड़े संकट दूर हुई हैं. हम इस तथ्य से भी इनकार नहीं कर सकते कि मीडिया के विकास ने भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार की समाप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है . लेकिन इसके माध्यम से दर आने वाली अश्लीलता और बे हियाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता.
यह एक अलग विषय हे -हम यहाँ मीडयाके इन व्यवहार का उल्लेख रहे हीं जस की वजह से देश के बीस करोड़ मुसलमानों को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के मुसलमानों को जहां एक अनदेखी की जा रहा है वहीं दूसरी ओर ानहीं बदनाम और हिंसा पसंद साबित करने की लगातार को शशें जारी है. यही वजह है कि जब भी कोई आकस्मिक स्थित पेश आता है तो मीडिया की सबसे पहले यही कोशिश होती है कि उसका रुख किसी तरह मुसलमानों की ओर मोड़ दिया जाए. पिछले महीने जब दिल्ली हाई कोर्ट में बम विस्फोट हुआ तो एक टीवी का पत्रकार बड़ी शरमी से खुफिया एजेंसी के अधिकारियों से पूछ रहा था कि कहीं इसमें 'इंडियन मुजाहिदीन' का तो हाथ नहीं है? यानी मीडिया प्रसारण करने के बजाय औपचारिक किसी मामले में पक्ष बन जाता है. जैसा कि आना हजारे के अनशन के अवसर पर देखने को मिला था. राम लीला मैदान में आना के अनशन के दौरान प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के न्यूनतम से लेकर उच्च पत्रकार, रिपोर्टर और एंकर बराजमान थे. राम लीला मैदान के किस बाथरूम में गंदगी है, कहाँ पानी की कमी है, दवाएं और भोजन आदि में समस्या हो रही है, विरोध कारों कौन सी सुविधाएं उपलब्ध नहीं है. आना की टोपी, बनियान, शर्ट, लड़कियों के शरीर पर लेख सलोगन आदि को खूब दीखाया गया. ऐसी चीजें वह ब्रेकिंग समाचार में भी देख रहे थे. देश में और क्या होर रहा है इससे उन्हें कोई सर्व कार नहीं. इसलिए हुआ भी यही आना के अनशन ने कई मुद्दों को दबा दिया..
बहुत अच्छी बात यह है कि सरकार और देश का प्रतिष्ठित वर्ग इस बात को अच्छी तरह समझने लगा है कि मुसलमानों के साथ अन्याय हो रहा है. बम विस्फोट और किसी भी आतंकवादी घटना के बाद पुलिस और खुफिया एजेंसियां पहले मुसलमानों को अपना निशाना बना जाती हैं. बिना किसी सबूत के दिन के उजाले और रात के ानधीरों में उनके घरों में छापे दी जाती है और उन्हें तरह तरह से परेशान किया जाता है. पहले गृहमंत्री पी चिदंबरम ने इस ओर तो जह देते हो ए पुलिस और जांच एजेंसियों को स्पष्ट किया कि एजेंसियां जांच का रुख एक समुदाय की ओर न मोड़ें. इसलिए कि देश के अंदर कई बम धमाकों में भगवा आतंकवाद का भी पता मिला. यहाँ इस तथ्य के बारे में भी ज़रूरी है कि इस दिशा सबसे पहले अगर किसी अधिकारी ने ध्यान दिया और व्यापार को बदला जो पुलिस अधिकारी और जांच एजेंसियों का था तो उसका श्रेय महाराष्ट्र एटीएस प्रमुख शहीद हेमंत करकरे के सिर जाता है. भगवा आतंकवाद का जिस जवां मुर्दी उन्होंने खुलासा कया आज़ाद भारतीय इतिहास में उसकी मिसाल नहीं मिलती. आज जो देश की विभिन्न जेलों में साध्वी परीगया सिंह, कर्नल पुरोहित और स्वामी ासीमाननदसमयत दर्जनों हिंदू अतिवादी बंद हैं यह सब स्वर्गीय करकरे की देन हैं. बहुत कम अवधि में ईमानदारी से अपने कर्तव्य पद को निभाते हुए उन्होंने भगवा खेमे में हलचल मचा दी, यही वजह है कि उन्हें अपने जीवन से भी हाथ धोना पड़ा.
विचार करने की बात यह है कि उनसे पहले केवल महाराष्ट्र में न जाने कितने निर्दोष मुस्लिम युवा बम धमाकों की वजह से जेल की सलाखों में भेजे जा चुके थे, और यह सिलसिला हनोज़ जारी था- देश के मूल समस्याओं में ग़रीबी, बेरोज़गारी, आवास की कमी और चिकित्सा सुविधाएं अप्रसार उपलब्धता है लेकिन मीडिया ऐसे मामलों को उजागर करता है जिससे जनता कोई संबंध नहीं होता है. मसलन लेकमे फैशन वीक के कवरेज के लिए 512 / स्वीकृत पत्रकार मौजूद थे. अनशन के दौरान पूरी मीडिया सिमट कर राम लीला मैदान में बराजमान थी .24 घंटे केवल एक ही खबर प्रसारित की जाती रही. क्षेत्रों में कुछ हजार लोगों को इस तरह पेश किया गया जैसे पूरा देश अन्ना के साथ हो. मीडिया का एक पहलू यह था जो राम लीला मैदान में आना के अनशन के अवसर पर देखने को मिला अब उसके दूसरे पहलू पर विचार कर ते है -
12 अक्टूबर को अलीगढ़ मुस्लिम उनिवार
सिटी की किशनगंज शाखा के जल्द गठन में टालमटोल का प्रदर्शन करने पर बिहार की नीतीश सरकार के खिलाफ प्रसिद्ध आलम दीन वर्कन संसद मौलाना असरारुल हक कासमी के नेतृत्व में लगभग दो लाख से अधिक बिहार, बंगाल और देश अन्य राज्यों की जनता ने भारी दस्त विरोध किया. बताया जाता है कि एएमयू केन्द्र नहीं तो सरकार नहीं, नीतीश कुमार ज़मीन दो 'जैसे निरों से पूरा क्षेत्र गूंज रहा था. विरोध में जनसमूह से अररिया, पूर्णिया, किशनगंज और कटिहार का पूरा दृश्य बदला हो ाथा, राष्ट्रीय राजमार्ग पर यातायात जाम और रेलवे विभाग पूरी तरह ठप था. गौरतलब बात यह है कि बिहार में अल्पसंख्यकों की ओर से किए जाने वाला अपनी प्रकार का यह पहला प्रदर्शन था जिसमें पुरुष और महिलाओं, बूढ़े और बच्चों का उत्साह दीदनी था. सुबह के सात बजे से रात के ग्यारह बजे तक इंसानों का ठा ठें मारता समुद्र रोई धासह के ऐतिहासिक मैदा न में था. मगर अफ़सोस प्रतिशत अफसोस कि इतने बड़े आंदोलन और बहुत ही संवेदनशील मो ज़ोि को राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अनदेखी कर दिया. अगर मीडिया ने शुद्ध सार्वजनिक हित के बारे में इस विरोध को महत्व दिया होती तो मज़लूम जनता का भी कुछ भला होता. लेकिन मीडिया के इस दोहरे मानदंड कयानाम दिया जाए कि एक ओर तो आना लिए हर जगह पलकें बिछाए रहता है और दूसरी ओर अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों के सबसे समस्याओं से भी तरह अनदेखी की जाती है.
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