एक प्रदर्शन जो मुसीबत बन गया


एक प्रदर्शन जो मुसीबत बन गया

सोमवार, 27 अगस्त, 2012  शहाबूद्दीन साक़िब
 
 

अगर यह कहा जाए कि मुसीबत मोल लेने में मुसलमान सबसे आगे हैं तो गलत नहीं होगा. मुसलमान जाने अंजाने कुछ ऐसा कर जाते हैं जिससे वह ज़ुल्म की चक्की में पीसने का मार्ग प्रशस्त करके अपनी बेवकूफी के कारण पूरे मुस्लिम समाज की शर्मिंदगी का कारण बन जाते हैं. साम्प्रदायिक शक्तियां जो हर समय इस ताक में बैठी रहती हैं उन्हें भी मुंह खोलने का मौका मिलता है. जैसा कि 11 अगस्त को मुंबई के आज़ाद मैदान में शांतिपूर्ण विरोध में देखने को मिला. देखते ही देखते असम और बर्मा के प्रभावितों  के समर्थन में मुसलमानों के विरोध ने एक बड़े हंगामे का रूप ले लिया जिसमें  फालतू में दो युवाओं की जान चली गयी और 52 से अधिक लोग घायल हो गए. हालांकि इस घटना की इस घटना की  सभी मिलली संगठनों और मुस्लिम नेताओं ने निंदा की इसके बावजूद महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने इस आंदोलन को आधार बनाकर मंगलवार को मुंबई में सांप्रदायिक  शक्ति  बका प्रदर्शन किया और मुंबई के शांतिपूर्ण माहौल को खराब  करने की कोशिश की. राज ठाकरे की यह कोशिश इसलिए ग़लत काही जयीगी क्यूंकी पुलिस की ओर से अनुमति न मिलने के बावजूद उन्होंने जुलूस निकाला और पुलिस ने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की. अगर मुंबई पुलिस द्वारा मनसे के कार्यकर्ताओं को रोकने की थोड़ी बहुत भी कोशिश की गई होती तो यह बताने की जरूरत नहीं कि आज मुंबई की क्या दुर्गत होती. इसका अंदाज़ा इस बात से अच्छी तरह लगाया जा सकता है कि महाराष्ट्र सरकार ने सांप्रदायिक ताकतों  के आगे घुटने टेकते हुए मुंबई के पुलिस आयुक्त अरूप  पटनायक का तबादला कर दिया. पटनायक जिन्होंने इस मामले में बहुत फूंक फूंक कर कदम उठाया और शहर को जलने से बचाने में अहम भूमिका निभाई उन्हें इनाम देने के बजाए राज ठाकरे के जुलूस के दूसरे ही दिन उनका तबादला कर दिया गया.

यहाँ ध्यान देने वाली  बात यह है आज़ाद मैदान में मुसलमानों ने भी विरोध किया और इसके जवाब में राज ठाकरे ने, मगर नेशनल मीडिया में मुस्लिम विरोध की खबर को जैसी जगह दी गयी वैसी राजठकेरे वाले विरोध को नहीं दी गयी।वह तो भला हो तो शहर का माहौल खराब नहीं हुआ वर्ण मीडिया ने जैसी खबरें दिखाईं थी उस से हालत बिगड़ सकते थे. मीडिया ने पूरे दिन मुसलमानों के हंगामे को दिखाया मगर वह भीड़ नहीं दिखाई जो एक अच्छे मक़सद से जमा हुई थी। हम इसे मुस्लिम दुश्मन ताकतों की साजिश भी बता सकते हैं जिसकी जांच सरकारी स्तर पर हो रही है. यह मीडिया का एक पहलू था, उसका दूसरा पहलू भी ध्यान देने योग्य है. इसी जगह पर राज ठाकरे का सम्मेलन था जिसमें उन्होंने हमेशा की भांति  अपनी सांप्रदायिकता  का प्रदर्शन करते हुए मुसलमानों पर खूब निशाना साधना और मीडिया ने इस बैठक को भरपूर कवरेज दिया. यह कोई पहला मामला नहीं है कि नेशनल  मीडिया ने अपने कर्तव्यों को उचित ढंग से नहीं निभाया हो ऐसी हजारों मिसालें हैं जिस से यह साबित होता है की किस तरह  मुस्लिम मुद्दों पर मीडिया ने जानबूझकर अपनी आँखें बंद कर ली हैं.

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के राम लीला मैदान में अन्ना  हजारे और बाबा रामदेव के अनशन और विरोध पर जान कुर्बान  करने वाला मीडिया इसी जगह पर होने वाले मुसलमानों के धरने और जुलूस की अनदेखी कर देता है. मुंबई के हिंसा का  कारण भी मीडिया के इसी  व्यवहार को बताया जा रहा है जो उन्होंने बर्मा और असम के मुसलमानों के सिलसिले में दिखाया. यह सच है कि बर्मा में बौध द्वारा मुसलमानों के नरसंहार और असम में बोडो उग्रवादियों के अत्याचार मीडिया ने जिस तरह की चुप्पी साधी वह दुखद है, लेकिन इस के विरोध के लिए हिंसा का रास्ता अख्तियार करना उससे कहीं अधिक दुखद और निंदनीय  है. इस घटना के बाद से अब तक लगभग चार दर्जन मुसलमानों को गिरफ्तार किया जा चुका है और यह सिलसिला अभी भी जारी है.

आ बैल मुझे मार की भांति मुसलमानों ने एक और मुसीबत मोल ले ली है क्योंकि इस घटना के बाद से मुंबई में मुसलमानों के खिलाफ  गिरफ्तारी की प्रक्रिया जारी है तो दूसरी ओर उसे सांप्रदायिक रंग देने की सांप्रदायिकता शक्तियों  की ओर से पूरी कोशिश हो रही है. ऐसे में मुंबई के हालात मुसलमानों के लिए खराब हो सकते हैं और सांप्रदायिक ताक़तें मुंबई के मुस्लिम नागरिकों का जीवन खराब करने की कोशिश करेंगे. जाहिर है इन हालात के जिम्मेदार हम और हमारे  मिली संगठन हैं जो जोश में होश खो बैठते हैं. देश में शांतिपूर्ण विरोध की पूरी अनुमति है इसके बावजूद विरोध करने वाले षड किसी बहकावे में आकार  बेकाबू हो जाते हैं जिसका ख़ामियाज़ा जनता को भुगतना पड़ता है. पुलिस की बातों पर विश्वास किया जाए तो मुंबई में जो गिरफ्तारियां हो रही है वह मीडिया वीडियो कलीपनग और सीसीटीवी फुटेज की मदद से किया जा रहा है और उन पर हत्या, हिंसा फैलाने, सरकारी कामकाज में हस्तक्षेप, मीडिया और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाया जा रहा है. अगर आन्दोलन में शामिल लोगों ने होश्मंदी और दूरदृष्टि से काम लिया होता तो उन्हें यह दिन कभी नहीं देखने पड़ते. विरोध करने वालों और  भड़काऊ भाषण करने वाले व्यवस्थापक और वक्ताओं को भी अपने दिल पर हाथ रख कर विचार करना चाहिए की  उन्होंने जो कुछ कहा उससे असम और बर्मा के मुस्लिम पीड़ितों को क्या मिला. उनका यह कदम अपने धार्मिक भाइयों के लिए भाग्यशाली साबित हुआ या कष्ट बनकर दूसरे शहरों की शांति को भी अपनी चपेट में ले गया. जब तक हम बहुत गंभीरता से कदम नहीं उठाएंगे, अपमान हमारा साथ नहीं छोड़ेगा. जरूरत इस बात की है कि मुस्लिम संगठन या मुस्लिम नेता किसी भी प्रदर्शन या धरना से पहले पूरी  रणनीति तैयार करें और उसी दायरे में रहकर अपनी वैध मांगों पर आवाज बुलंद करें तो ही परेशानी से बच सकते हैं वरना सांप्रदायिक ताक़तें उन्हें जाल में फँसाने के लिए हमेशा तैयार रहती हैं.

                      लेखक पत्रकार हैं और उर्दू दैनिक इंकलाब से जुड़े हैं.

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