जहाँ लगती है आदमी की बोली

केंद्र सरकार द्वारा जारी नेशनल सैम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन की रिपोर्ट के मुताबिक अब भी ग्रामीण आबादी का पांचवां हिस्सा मात्र 12 रुपये रोजाना में जीवन जीने को अभिशप्त है। ग्रामीणों की आय का आधा से ज्यादा हिस्सा यानी एक रुपये में 35 पैसे भोजन जुटाने में खर्च हो जाते हैं। इन तथ्यों के आइने में जब उत्तर बिहार में गरीबी उन्मूलन की दिशा में हुए सरकारी प्रयासों की बात करते हैं तो रूह कांप उठती है। यहां के शहरों में हर सुबह मजदूरों की बोली लगती है।
अर्थशास्त्री डा. अम‌र्त्य सेन की बात यहां पूरी तरह सच दिखती है, जिसमें उन्होंने कहा है कि समस्या उत्पादन की नहीं, बल्कि समान वितरण की है।
बिहार ke मुजफ्फरपुर शहर के चौराहे हर सुबह गुलजार हो जाते हैं मजदूरों और ठेकेदारों से। अलस्सुबह गांव से आए हजारों मजदूरों की यहां बोली लगती है। इनके अपने-अपने ठिकाने हैं। ज्यों-ज्यों सूरज आसमान चढ़ता है, इनकी कीमत कम होती जाती है।
पश्चिमी चंपारण के बेतिया शहर में यह नजारा लालटेन चौक, इमली चौक, छावनी चौक, राज ड्योढी तथा हरिवाटिका चौक पर देखी जा सकती है। मजदूरों में अधिकतर मजदूरी नहीं मिलने के कारण घर लौट जाते हैं। बगहा में सरकार हर वर्ष अक्टूबर में निर्धनता उन्मूलन दिवस मनाती है। बावजूद गरीबी के कारण पलायन जारी है।
मोतिहारी के छतौनी, ज्ञानबाबू चौक, बलुआ चौक व चांदमारी चौक पर सुबह आठ से दस बजे तक नजारा देखने लायक होता है। यहां मजदूर माल की तरह बिकते हैं। 100 से 120 रुपये की मजदूरी पर ये कोई भी काम करने को तैयार हो जाते हैं। कई बार तो इन्हें पूरी मजदूरी भी नहीं दी जाती। डर होता है कि कहीं अगले दिन भाग न जाएं। दरभंगा के गांवों से अलस्सुबह चलकर यहां मजदूर काम की तलाश में पहुंचते हैं। शहर के एक कोने में आकर बैठ जाते हैं। लोग आते हैं, बोली लगाते हैं और खरीदकर इन्हें ले जाते हैं। यह अमानवीय दृश्य पाली राम चौक, कटहलबाड़ी गुमटी व महाराजी पुल के पास आसानी से देखा जा सकता है। जिनको काम मिल जाता है, वे खुद को खुशनसीब समझते हैं, वर्ना निराश होकर गांव लौट जाते हैं।
फिर दूसरे दिन अलस्सुबह चौराहों पर आकर खड़े हो जाते हैं।

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