दो गज ज़मीं ना मिल सकी ...

किसी भी देश के इतिहास में बहादुर शाह जफर जैसे कम ही शासक होते हैं जो अपने देश को महबूबा की तरह मुहब्बत करते हैं और जीवन भर देशप्रेम में डूबे रहने के बाद 'कू ए यार' में जगह न मिल पाने की कसक के साथ परदेस में दम तोड़ देते हैं।
बादशाह जफर ने जब रंगून में कारावास के दौरान अपनी आखिरी सांस ली तो शायद उनके लबों पर अपनी ही मशहूर गजल का यह शेर अवश्य रहा होगा 'कितना है बदनसीब जफर दफ्न के लिए, दो गज जमीन भी न मिली कू ए यार में।'
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर उर्दू के एक बड़े शायर के रूप में भी विख्यात हैं। उनकी शायरी भावुक कवि के बजाय देशभक्ति के जोश से भरी रहती थी और यही कारण था कि उन्होंने अंग्रेज शासकों को 'तख्ते लंदन तक हिन्दुस्तान की शमशीर [तलवार] चलने की' चेतावनी दी थी। जनश्रुतियों के अनुसार प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद जब बादशाह जफर को गिरफ्तार किया गया तो उर्दू जानने वाले एक अंग्रेज सैन्य अधिकारी ने उन पर कटाक्ष करते हुए यह शेर कहा, 'दमदमे में दम नहीं खैर मांगो जान की, बस हो चुकी जफर शमशीर हिंदुस्तान की।' इस पर जफर ने करारा जवाब देते हुए कहा था, 'गाजियों में जब तलक बू रहेगी ईमान की, तख्ते लंदन तक चलेगी शमशीर हिन्दुस्तान की।'
भारत में मुगलकाल के अंतिम बादशाह कहे जाने वाले जफर को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान दिल्ली का बादशाह बनाया गया था। बादशाह बनते ही उन्होंने जो चंद आदेश दिए उनमें से एक था गोहत्या पर रोक लगाना। इस आदेश से पता चलता है कि वे हिन्दू मुस्लिम एकता के कितने बड़े पक्षधर थे। 1857 के समय बहादुर शाह जफर एक ऐसी बड़ी हस्ती थे जिनका बादशाह के तौर पर ही नहीं एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के रूप में भी सभी सम्मान करते थे। इसीलिए बेहद स्वाभाविक था कि मेरठ से विद्रोह कर जो सैनिक दिल्ली पहुंचे उन्होंने सबसे पहले बहादुर शाह जफर को अपना बादशाह बनाया।
चतुर्वेदी ने बातचीत में कहा कि जफर को बादशाह बनाना सांकेतिक रूप से ब्रिटिश शासकों को एक संदेश था। इसके तहत भारतीय सैनिक यह संदेश देना चाहते थे कि भारत के केंद्र दिल्ली में विदेशी नहीं बल्कि भारतीय शासक की सत्ता चलेगी। उन्होंने कहा कि बादशाह बनने के बाद बहादुर शाह जफर ने गोहत्या पर पाबंदी का जो आदेश दिया था वह कोई नया आदेश नहीं था। अकबर ने अपने शासनकाल में इसी तरह का आदेश दे रखा था। जफर ने महज इस आदेश का पालन फिर से करवाना शुरू कर दिया था।
देशप्रेम के साथ-साथ जफर के व्यक्तित्व का एक अन्य पहलू शायरी थी। उन्होंने न केवल गालिब, दाग, मोमिन और जौक जैसे उर्दू के बड़े शायरों को तमाम तरह से प्रोत्साहन दिया बल्कि वह स्वयं एक अच्छे शायर थे। साहित्य समीक्षकों के अनुसार जफर के समय में जहां मुगलकालीन सत्ता चरमरा रही थी वहीं उर्दू साहित्य खासकर उर्दू शायरी अपनी बुलंदियों पर थी।
जफर की मृत्यु के बाद उनकी शायरी कुल्लियात ए जफर के नाम से संकलित की गई। जफर का जन्म 24 अक्टूबर 1775 में हुआ था। उनके पिता अकबर शाह द्वितीय और मां लालबाई थीं। अपने पिता की मृत्यु के बाद जफर को 18 सितंबर 1837 में मुगल बादशाह बनाया गया। यह दीगर बात थी कि उस समय तक दिल्ली की सल्तनत बेहद कमजोर हो गई थी और मुगल बादशाह नाम मात्र का सम्राट रह गया था। भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की जफर को भारी कीमत भी चुकानी पड़ी थी। उनके पुत्रों और प्रपौत्रों को ब्रिटिश अधिकारियों ने सरेआम गोलियों से भून डाला। यही नहीं उन्हें बंदी बनाकर रंगून ले जाया गया जहां उन्होंने सात नवंबर 1862 में एक बंदी के रूप में अपना दम तोड़ा और उन्हें वहीं दफनाया गया। आज भी कोई देशप्रेमी व्यक्ति जब तत्कालीन बर्मा [म्यामां] की यात्रा करता है तो वह जफर की मजार पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि व्यक्त करना नहीं भूलता।

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